पृथ्वी की उत्पत्ति

परिचय

विभिन्न खगोलीय पिंड जैसे तारे, ग्रह इत्यादि निरंतर सूर्य की कक्षा में चक्कर लगाते रहते हैं, जिसे संयुक्त रूप से सौरमंडल कहा जाता है। इसमें नौ ग्रह, कुछ बौने ग्रह, 63

चंद्रमा, लाखों अपेक्षाकृत छोटे खगोलीय पिंड जैसे ग्रहिकाएँ (क्षुद्र ग्रह) और पुच्छल तारे (धूमकेतु) सम्मिलित हैं; साथ ही साथ इसमें बड़ी मात्रा में गैस और धूल कण भी विद्यमान हैं। ग्रह अपने उपग्रहों के साथ सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अभी तक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जीवन हेतु उपयुक्त पर्यावरण इसके सिर्फ एक ही ग्रह पर होना ज्ञात है, जिसे पृथ्वी कहते हैं। आप अनुभाग 1.3 में विस्तार से इस सौरमंडल के विषय में समझेंगे। आप पृथ्वी और सौरमंडल की उत्पत्ति से संबन्धित परिकल्पनाओं के विषय में भी अध्ययन करेंगे।

मौलिक अवधारणाएँ

पृथ्वी एक कृष्णिका (ब्लैक बॉडी) के रूप में

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि पृथ्वी एक कृष्णिका विकिरक (ब्लैक बॉडी रेडिएटर) हो जाने के काफी करीब है। इसका अर्थ है कि कृष्णिका किसी भी तरंगदैर्ध्य पर ताप को अवशोषित कर सकती है। लेकिन ये एक विशेष तरंग पैटर्न पर ताप का उत्सर्जन भी करती है। ऐसा पृथ्वी के ब्लैक बॉडी रेडिएटर हो जाने के निकट पहुँच जाने के कारण है जो हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी है क्योंकि ये सौर ऊर्जा को किसी भी तरंगदैर्ध्य (अधिकतर लघु तरंगदैर्ध्य अर्थात् आने वाले स्थलीय विकिरण) पर अवशोषित कर सकता है, लेकिन इसे विकिरण की एक संकीर्ण पट्टी पर ही उत्सर्जित करता है। क्या आप जानते हैं कि पृथ्वी पर विभिन्न जीवन प्रकारों का उद्भव किस प्रकार संभव हुआ है? ऐसा इस हरितगृह (ग्रीनहाउस) प्रभाव के कारण हुआ है अन्यथा सूर्य के विकिरण भी पुनः विकरित हो गए होते। यद्यपि, पृथ्वी ब्लैक बॉडी रेडिएटर बन जाने के निकट है, लेकिन इसके द्वारा अवशोषित ऊर्जा भिन्न स्तर पर है (उदाहरण पराबैंगनी किरणों को ओजोन परत द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है)। पृथ्वी उस तक पहुँचने वाली सिर्फ एक-तिहाई ऊर्जा को परावर्तित करती है, जिससे वह काफी चमकदार दिखाई देती है।

पृथ्वी, ग्रहों और उपग्रहों का घूर्णन और परिक्रमण

आप सभी जानते हैं कि पृथ्वी का घूर्णन (rotation) ठोस पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना है। पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन करती है। उत्तरी तारे अथवा ध्रुव तारे के संदर्भ में पृथ्वी वामावर्त (Anti-Clockwise) घूमती है। पृथ्वी के घूर्णन का अक्ष उत्तरी गोलार्ध में उत्तरी ध्रुव पर तथा दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिणी ध्रुव (अंटार्कटिका) पर पृथ्वी की सतह को काटता है। पृथ्वी प्रति चौबीस घंटे में सूर्य के सापेक्ष घूर्णन करती है और एक घूर्णन पूरा करने में पृथ्वी 23 घंटे, 56 मिनट और चार सेकेंड का समय लेती है। पृथ्वी का घूर्णन

समय के साथ थोड़ा मंद हो रहा है, इसलिए पूर्व काल में दिन थोड़ा छोटा था, ऐसा पृथ्वी के घूर्णन पर चंद्रमा के ज्वारीय प्रभाव के कारण है। परमाणु घड़ी दर्शाती है कि आधुनिक दिन पिछली शताब्दी की तुलना में 1.7 मिली सेकेंड बड़ा हो गया है। ये धीरे-धीरे उस दर को बढ़ा रहा है तथा वह समन्वित वैश्विक समय (UTC) अधिसैकिन्डों द्वारा समायोजित होता है। आप संभवतः जानते होंगे कि पृथ्वी का घूर्णन प्रकाश और अंधकार की एकांतरी अवधियों के लिए उत्तरदायी है जिसके कारण हमें दिन और रात प्राप्त होते हैं।

चित्र 1.1: सौरमंडल के प्रमुख ग्रह।

पृथ्वी का परिक्रमण (परिक्रमा) पृथ्वी द्वारा सूर्य का पूर्ण चक्कर लगाना है। यह वर्ष कहलाता है और पृथ्वी को सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में 365.25 दिन लगते हैं। इस परिक्रमा पथ के आधार पर ज्ञात होता है कि पृथ्वी की कक्षा वृत्तीय नहीं बल्कि दीर्घवृत्तीय है और इसके फलस्वरूप पृथ्वी (जुलाई की तुलना में) जनवरी में सूर्य के अधिक नजदीक होती है, सूर्य से अधिकतम और न्यूनतम दूरी के बीच अंतर 4 करोड़ 80 लाख किलोमीटर का है। यह अंतर इतना अधिक नहीं है कि पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित कर सके। यदि आप सौरमंडल की डिस्क को ऊपर से देखें तो सूर्य वामावर्त घूर्णन करता दिखाई देता है और आप देखेंगे कि पृथ्वी भी सूर्य के चारों ओर वामावर्त दिशा में ही घूम रही है। सूर्य और पृथ्वी दोनों इसी दिशा में घूर्णन करते हैं।

सौरमंडल में प्रमुख ग्रहों के संरेखण को चित्र 1.1 में आरेखी रूप से प्रदर्शित किया गया है। वास्तव में ग्रह अपनी धुरी या अक्ष पर घूर्णन करते हैं और अधिकांश चंद्रमा ग्रहों के इर्द-गिर्द वामावर्त दिशा में परिक्रमा करते हैं। घूर्णन व परिक्रमण की इस समान वामावर्त दिशा के द्वारा हम मूल मेघ के घूर्णन का अनुमान लगा सकते हैं, जिससे सौरमंडल के सभी घटक निर्मित हुए हैं। पृथ्वी का अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर परिक्रमण करने की अवधि वर्ष को बताती है जो ग्रहों का एक प्राकृतिक समय मापक्रम (Time scale) है। सूर्य एवं पृथ्वी के बीच औसत दूरी 14.95 करोड़ किलोमीटर है। यह खगोलीय इकाई को परिभाषित करता है। पृथ्वी की कक्षा की दो प्रमुख स्थितियाँ हैं एक सूर्यनीच या उपसौर (Perihelion) सूर्य के सबसे निकट पहुंच जाने की स्थिति है। यह 3 जनवरी को होती है जब सूर्य से पृथ्वी की दूरी 14.6 करोड़ किलोमीटर होती है। दूसरी सूर्योच्च या अपसौर (Aphelion) है यह वह बिंदु जिस पर पृथ्वी सूर्य से सबसे दूर होती है। यह 4

जुलाई को होता है जब सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी 15.6 करोड़ किलोमीटर होती है। सूर्यनीच और सूर्योच्च स्थितियों के बीच दूरी का अंतर (लगभग एक करोड़ किलोमीटर) छोटा होने के बाद भी महत्वपूर्ण है। इसका एक परिणाम यह होता है कि उत्तरी गोलार्ध की सर्दियाँ / दक्षिण गोलार्ध की गर्मियों से तथा दक्षिणी गोलार्ध की सर्दियाँ / उत्तरी गोलार्ध की गर्मियों से हल्की होती हैं। कुछ हद तक ये दक्षिणी गोलार्ध के ध्रुवीय क्षेत्र के बहुत विशाल हिमछत्रक के अस्तिव को समझने में सहायता करता है। सूर्योच्च और सूर्यनीच की तिथियाँ समय के साथ धीरे-धीरे परिवर्तित होती हैं क्योंकि पूरी कक्षा कांतिवृत्त तल में मंद गति से वामावर्त घूमती है और कक्षा का आकार उत्केन्द्रता के आधार पर समय के साथ परिवर्तित होता है। सदैव ध्यान रखिए कि पृथ्वी की अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर की परिक्रमा उसके अक्ष पर घूर्णन से स्वतंत्र होती है। आप चित्र 1.2 से पृथ्वी पर दिन और रात के बनने के चक्र की कल्पना कर सकते हैं।

चित्र 1.2: पृथ्वी के घूर्णन का कलात्मक प्रदर्शन।

आप मौसमों में परिवर्तन को कैसे समझेंगे? मौसमों में परिवर्तन पृथ्वी के अक्ष के उसकी कक्षा के तल पर थोड़ा झुका होने के कारण होता है, जो 66.5 का कोण बनाता है। जब पृथ्वी के अक्ष का उत्तरी सिरा सूर्य की ओर झुका रहता है, तो सूर्य के प्रकाश की सर्वाधिक सीधी किरणें उत्तरी गोलार्ध पर पड़ती हैं। इससे ग्रीष्म-ऋतु का आगमन होता है। इस समय दक्षिणी गोलार्ध में शीत-ऋतु होती है क्योंकि इस समय वहाँ किरणें सीधी नहीं पहुँचती हैं। बीच में बसंत और शिशिर में एक ऐसा समय होता है जब पृथ्वी के सभी भागों में दिन और रात की अवधि समान होती है। जब पृथ्वी के अक्ष का उत्तरी सिरा सूर्य से विपरीत दिशा में झुका होता है, तो उत्तरी गोलार्ध में सूर्य का प्रकाश अत्यंत कम मात्रा में प्राप्त होता है, जिससे यहाँ शीत-ऋतु होती है।

ब्रह्माण्ड और मंदाकिनियाँ

मंदाकिनियाँ धूल और असंख्य तारों से निर्मित अव्यवस्थित प्रसार वाले अंतरिक्ष के पिंड हैं। मंदाकिनियों की संख्या की गिनती नहीं की जा सकती है। अकेले दृश्य ब्रह्माण्ड में

ही सौ अरब मंदाकिनियाँ है। इनमें से कुछ हमारी मंदाकिनी के जैसी हैं जबकी अन्य काफी भिन्न हैं। हमारी मंदाकिनी आकाशगंगा का व्यास लगभग 100,000 प्रकाश वर्ष है। इसमें 100 करोड़ से अधिक तारे हैं। हमारा सूर्य अपने सौरमंडल के साथ आकाशगंगा के केन्द्र से लगभग 30 हजार प्रकाश वर्ष दूर है। अन्य तारों की भांति सूर्य अपने सौरमंडल के साथ आकाशगंगा के केन्द्र के चारों ओर घूमता है। परिक्रमा की अवधि लगभग 224×106 वर्ष की है। अतः सूर्य ने आकाशगंगा के चारों ओर अभी तक सिर्फ दो पूर्ण चक्कर लगाए हैं। सौरमंडल आकाशगंगा के चारों और 28.5 किलोमीटर प्रति सेकेण्ड की गति से घूमता है। अब हम विभिन्न प्रकार की मंदाकिनियों के विषय में चर्चा करेंगे।

मंदाकिनियों का वर्गीकरण

खगोल विज्ञानी एडविन हबल ने मंदाकिनियों को चार प्रमुख प्रकारों में वर्गीकृत किया था। ये सर्पिल (Spiral), दंड सर्पिल (Barred spiral) दीर्घवृत्तीय (Elliptical) और अनियमित मंदाकिनियाँ (Irregular galaxies) हैं। हमारे आसपास की अधिकांश चमकीली मंदाकिनियाँ सर्पिल, दंड सर्पिल अथवा दीर्घवृत्तीय हैं। आइए अब हम इनके विषय में और अधिक जानने का प्रयास करते हैं।

सर्पिल मंदाकिनियों में केन्द्र में एक उभार और सर्पिल भुजाओं युक्त एक चपटी डिस्क होती है। सर्पिल मंदाकिनियाँ विविध आकारों की होती है और इन्हें उभार की माप और भुजाओं की सघनता एवं आकार के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। सर्पिल भुजाएँ जो उभार के चारों ओर से घूर्णित रहती हैं, में असंख्य नवीन नीले तारे तथा अत्यधिक गैस एवं धूल होती है। उभार के भीतर के तारे अधिक पुराने और अधिक लाल होते हैं। पीले तारे जैसे हमारा सूर्य सर्पिल मंदाकिनी की पूरी डिस्क में पाए जाते हैं। सर्पिल मंदाकिनियों की डिस्क किसी चक्रवाती तूफान अथवा जलावर्त (भंवर) की भांति घूमती है।

दंड सर्पिल मंदाकिनियाँ ऐसी सर्पिल मंदाकिनियाँ हैं जिनमें मंदाकिनी के केन्द्र से होकर तारों का दंडाकार समूह गति करता है।

दीर्घवृत्तीय मंदाकिनियों में डिस्क अथवा भुजाएँ नहीं होती हैं। बल्कि इनकी पहचान इनके चिकने, अंडाकार आकार से होती है। दीर्घवृत्तीय मंदकिनियों में पुराने तारे और कुछ गैसें अथवा धूल होती हैं। इनको गोलक के आकार द्वारा वर्गीकृत किया जाता है, जो गोल से अंडाकार (फुटबॉल आकर से बेसबॉल आकार) तक हो सकते हैं। सर्पिल मंदकिनियों की डिस्क के विपरीत, दीर्घवृत्त में सभी तारे केन्द्र के इर्दगिर्द व्यवस्थित तरीके से परिक्रमा नहीं करते हैं। तारे मंदाकिनी के अंदर ऐच्छिक रूप से अभिविन्यासित कक्षों में गति करते हैं जैसे कि मधुमक्खियों का झुंड करता है।

अनियमित मंदाकिनियाँ वे मंदाकिनियाँ है जो न तो सर्पिल और न ही दीर्घवृत्तीय होती हैं। ये अपेक्षाकृत छोटे पिंड हैं जिनका कोई निश्चित आकार नहीं होता हैं। इनमें अत्यधिक गर्म नवीन तारों के साथ असंख्य मात्रा में गैस एवं धुलकणों के मिश्रण के पाए जाने की संभावना व्यक्त की जाती है।

सौरमंडल

ऐसा माना जाता है कि सौरमंडल का निर्माण लगभग 4.6 अरब वर्ष पूर्व एक विशाल आणविक मेघ के गुरूत्वाकर्षी निपात (Gravitational collapse) से हुआ था। इसमें सूर्य और वे पिंड सम्मिलित हैं जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं। वे या तो सूर्य की प्रत्यक्ष परिक्रमा करते हैं अथवा उन अन्य पिंडों की परिक्रमा करते हैं जो इसकी प्रत्यक्ष परिक्रमा करते हैं। जो पिंड सूर्य की प्रत्यक्ष परिक्रमा करते हैं, उनमें सबसे बड़े वे नौ ग्रह है जो इसके चारों ओर एक ग्रहीय तंत्र का निर्माण करते हैं, जबकि शेष काफी छोटे पिंड हैं जैसे वामन ग्रह और लघु सौरमंडलीय पिंड (Small Solar System Bodies; SSSB’s) जैसे कि पुच्छल तारे और क्षुद्रग्रह इत्यादि। सभी ग्रह आकार में भिन्न होते हैं। सौरमंडल के मध्य में स्थित ग्रह पार्श्व ग्रहों से आकार में बड़े हैं। भूभौतिक विज्ञानी ग्रहों की इस प्रकार की व्यवस्था को ‘सिगार आकार’ की व्यवस्था कहते हैं। सौरमंडल के ग्रहों को दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है : आन्तरिक अथवा पार्थिविक ग्रह और बाह्य ग्रह (चित्र 1.3)।

आंतरिक अथवा पार्थिव ग्रह – आंतरिक वृत्त में चार ग्रह हैं, जिनमें बुध, शुक्र, पृथ्वी, के साथ मंगल ग्रह और क्षुद्र ग्रह हैं। ये ग्रह आंतरिक ग्रह भी कहलाते हैं क्योंकि ये सूर्य और क्षुद्रग्रहों की पट्टी के बीच स्थित हैं एवं सूर्य के नजदीक हैं। इनको पार्थिव ग्रह भी कहते हैं जिसका अर्थ यह है कि ये ग्रह पृथ्वी की भाँति शैलों एवं धातुओं से निर्मित है। ये ग्रह अपेक्षाकृत छोटे आकार और उच्चतर घनत्व के होते हैं। उनकी घूर्णन की गति कम होती है। इनके या तो कोई उपग्रह नहीं है अथवा बाहरी ग्रहों की तुलना में बहुत कम उपग्रह हैं उदाहरण के लिए पृथ्वी का मात्र एक और मंगल के दो उपग्रह हैं।

बाह्य ग्रह – इन्हें विशाल ग्रह अथवा जोवियन ग्रह (बृहस्पति जैसे) भी कहते हैं। बाह्य वृत्त में पांच ग्रह हैं – बृहस्पति, शनि, यूरेनस / अरुण, वरुण और प्लूटो। ये ग्रह बड़े आकार के हैं और कम सघन हैं। इनमें स्थूल वायुमंडल है जो मुख्य रूप से हीलियम और हाइड्रोजन का बना है। इनकी घूर्णन की गति और उपग्रहों की संख्या आंतरिक ग्रहों की तुलना में अधिक है।

चार छोटे आंतरिक ग्रह शुक्र, पृथ्वी, मंगल और बुध पार्थिव ग्रह भी कहलाते हैं और प्राथमिक रूप से शैल और धातु के बने हैं। चार बाह्य ग्रह जो गैसीय गोले (गैस के विशाल गोले) कहलाते हैं पार्थिव ग्रहों की तुलना में काफी अधिक विशाल  हैं। दो सर्वाधिक विशाल ग्रह बृहस्पति और शनि मुख्य रूप से हीलियम और हाइड्रोजन से निर्मित हैं। दो सर्वाधिक बाह्य ग्रह, अरुण और वरुण व्यापक रूप से ऐसे पदार्थों से निर्मित हैं जिनका गलनांक (हाइड्रोजन और हीलियम की तुलना में) अपेक्षाकृत उच्च होता है, इन्हें आइसेस (Ices) भी कहते हैं जैसे जल, अमोनिया और मीथेन और उन्हें अक्सर पृथक रूप से (बर्फीले पिंड) ‘आइस जाइन्ट’ कहा जाता है। सभी ग्रहों की कक्षा लगभग

वृत्ताकार है और ये एक चपटी डिस्क के भीतर स्थित है  जिसे क्रान्तिवृत्त तल कहते हैं। सौरमंडल के द्रव्यमान का अधिकांश भाग सूर्य में निहित है और शेष में से अधिकांश बृहस्पति में निहित है।

सौरमंडल में अपेक्षाकृत छोटे पिंडों युक्त क्षेत्र भी हैं। क्षुद्रग्रहों की मेखला जो मंगल और वृहस्पति के बीच स्थित है, में अधिकतर ऐसे पिंड हैं जो पार्थिविक ग्रहों की भांति शैल और धातु से निर्मित हैं। वरूण की कक्षा के बाद क्यूपर पट्टी (Kuper belt) और प्रकीर्णित डिस्क स्थित हैं। यह क्षुद्रग्रहों की मेखला से 20 गुना अधिक बड़ी है और इसमें लाखों की संख्या में पिंड स्थिथत हैं जिनका निर्माण बर्फ के अणुओं से हुआ हैं। क्यूपर पट्टी में दस हजार से अधिक पिंड ऐसे हैं जो इतने बड़े हैं कि वे अपने गुरूत्व से घिरे हैं। ऐसे पिंड वामन ग्रह (Dwarf planets) भी कहलाते हैं। पहचाने जा चुके वामन ग्रहों में क्षुद्र ग्रह केरीसैन्ड, ट्रांस वरूण पिंड प्लूटों और एरिस सम्मिलित हैं। इन दोनों क्षेत्रों के अतिरिक्त, विभिन्न अन्य लघु पिंडों के समूह के साथ पुच्छल तारे सेन्टॉर और अन्तरग्रहीय धूल क्षेत्रों के बीच मुक्त रूप से गति करते हैं। छह ग्रहों, कम से कम तीन वामन ग्रह और अनेक अपेक्षाकृत छोटे पिंडों की कक्षाओं में प्राकृतिक उपग्रह हैं जिन्हें सामान्यतः पृथ्वी के उपग्रह चंद्रमा के नाम पर ‘चंद्रमा’ कहते हैं। प्रत्येक बाह्य ग्रह धूल तथा छोटे पिंडों के ग्रहीय वलय से घिरा रहता है। सूर्य से प्लाज्मा का प्रवाह जिसे सौर पवन कहते हैं, अन्तर-तारकीय माध्यम में एक बुलबुला निर्मित करता है जो सूर्यमंडल (Heliosphere) कहलाता है। यह प्रकीर्णित डिस्क के किनारे बाहर निकली रहती है। ओर्ट (Oort) मेघ, जो दीर्घावधि के पुच्छल तारों का स्रोत माना जाता है, वह भी सूर्यमंडल से लगभग हजार गुना आगे की दूरी पर स्थित है। हीलियोपॉज (Heliopause) वह बिंदु है जिस पर सौर पवन का दाब अन्तरातारकीय पवन के विपरीत दाब के बराबर होता है। सौरमंडल आकाशगंगा जिसमें लगभग 200 अरब तारे हैं की एक बाह्य भुजा में स्थित है।

चित्र 1.3 : सौरमंडल के आंतरिक ग्रहों (बुध से मंगल) तथा बाह्य ग्रहों (वृहस्पति से वरूण) और उसके बाह्य क्षेत्रों को दर्शाती कलाकार की अभिव्यक्ति (सौजन्य नासा)।

सौरमंडल एंव पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित परिकल्पनाओं का व्यापक विवरण देने से पहले, सौरमंडल की कुछ विशेषताओं को जानना अत्यधिक महत्वपूर्ण है, जो निम्नलिखित हैं:

  • इन सभी ग्रहों का अक्ष, उनके कक्षीय तलों की ओर झुका है किंतु इनका अपने अक्ष पर झुकाव एक-दूसरे से भिन्न है ।
  • सभी ग्रह अपने अक्ष पर घूर्णन करते हैं और इन ग्रहों के घूर्णन की गति एक दूसरे से भिन्न है।
  • शुक्र एवं अरुण के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर वामावर्त दिशा में घूमते हैं।
  • इन ग्रहों का पथ वृत्ताकार अथवा दीर्घवृत्तीय है।
  • ये सभी ग्रह सूर्य की तुलना में बहुत छोटे आकार और कम द्रव्यमान के हैं।
  • सूर्य सौरमंडल का लगभग 98% भाग बनाता है।
  • सौरमंडल में कोणीय संवेग का वितरण विशेष प्रकार का है। कोणीय संवेग के संरक्षण के नियम के अनुसार किसी एकाकी तंत्र का कोणीय संवेग स्थिर रहता है, इसका अर्थ है कि यदि कोई पिंड घूर्णन कर रहा है, तो उसके कोणीय संवेग की कुल मात्रा सदैव स्थिर रहेगी जब तक कि घूर्णन करने वाले पिंड पर कोई बाह्य बल नहीं लगाया जाता है। कोणीय संवेग द्रव्यमान, कोणीय वेग और घूर्णन करने वाले पिंड की त्रिज्या के वर्ग का गुणनफल होता है। सौरमंडल में कोणीय संवेग का वितरण एकसमान नहीं होता है।

ये जानना बहुत दिलचस्प है कि जब हम सूर्य के कोणीय संवेग की अन्य ग्रहों के कोणीय संवेग के साथ तुलना करते हैं, तो हम देख सकते हैं कि सूर्य में कुल कोणीय संवेग का सिर्फ 1.7% होता है। इसका शेष 98.3% भाग सौरमंडल के अन्य ग्रह बनाते हैं। इसके विपरीत सूर्य में सौरमंडल का 99.9% द्रव्यमान होता है जबकि ग्रहों में सिर्फ 0.01% द्रव्यमान होता है।

क्षुद्रग्रह, विशेषरूप से सौरमंडल के आंतरिक भाग में स्थित लघु ग्रह हैं। बड़े आकार वाले ग्रह ग्रहिकाएँ कहलाते हैं। ये शब्द विशिष्ट रूप से ऐसे किसी भी खगोलीय पिंड के लिए प्रयोग किए जाते हैं जो सूर्य की कक्षा में चक्कर लगाते हैं लेकिन जिनमें ग्रह की डिस्क नहीं दिखाई देती है। लाखों क्षुद्रग्रह हैं जिनमें से अनेक को तरूण सूर्य नीहारिका के ग्रहाणु पिंडों के टूटे अवशेष माना जाता है जो कभी इतने विकसित नहीं हो पाए कि ग्रह बन सकें। ज्ञात क्षुद्र ग्रहों में से अधिकतर मंगल और बृहस्पति की कक्षाओं के बीच की पट्टी में स्थित हैं। जबकि अन्य कक्षीय परिवार बड़े समूह में र्थित हैं जिसमें पृथ्वी के निकट र्थित क्षुद्रग्रह भी सम्मिलित किए जाते हैं। एकाकी क्षुद्रग्रहों का वर्गीकरण उनके विशिष्ट स्पैक्ट्रमों के आधार पर तीन समूहों में किया जाता है, सी (C)-टाइप (कार्बन समूह), एस (S)-टाइप (पथरीला / कठोर समूह) और एम (M)-टाइप (धात्विक समूह) इत्यादि। अब तक ज्ञात मात्र एक क्षुद्र ग्रह 4-वेस्टा जिसकी सतह अपेक्षाकृत परावर्तनी है, सामान्यतः नग्न आंखो से देखा जा सकता है लेकिन केवल तभी जब आसमान में अत्यधिक अंधेरा हो और ये अपने अनुकूल स्थान पर स्थित हों।

पृथ्वी एंव सौरमंडल की उत्पत्ति

समय-समय पर विभिन्न वैज्ञानिकों ने सौरमंडल की उत्पत्ति और उद्भव को समझाने के लिए अपनी संकल्पनाएँ, परिकल्पनाएँ और सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं। ऐसे मत और संकल्पनाएँ दो समूहों में विभाजित की जा सकती हैं : धार्मिक संकल्पनाएँ और वैज्ञानिक संकल्पनाएँ। धार्मिक संकल्पनाओं को रद्द कर दिया गया क्योंकि उनका कोई तार्किक और वैज्ञानिक आधार नहीं है। वैज्ञानिक संकल्पनाएँ सामान्यतः विशुद्ध विज्ञान पर आधारित हैं जिन्हें दो मतों, तप्त उत्पत्ति संकल्पनाओं और शीत उत्पत्ति संकल्पनाओं में विभाजित किया गया है। तप्त उत्पत्ति संकल्पना के अनुसार ग्रहों को द्रव्य से निर्मित माना गया है जो या तो तप्त था अथवा ग्रहों की उत्पत्ति की प्रक्रिया में गर्म हो गया। दूसरी तरफ शीत उत्पत्ति संकल्पना के मतावलम्बी मानते हैं कि सौरमंडल की उत्पत्ति ऐसे द्रव्य से हुई है जो या तो आरंभ में ठंडा था अथवा सदैव ठंडा बना रहा था। सौरमंडल और पृथ्वी की उत्पत्ति में सम्मिलित आकाशीय पिंडों की संख्या के आधार पर वैज्ञानिक संकल्पनाओं को तीन समूहों में विभाजित किया गया है : अद्वैतवादी (एकात्मक) संकल्पना अर्थात एक तारा परिकल्पना; द्वैतवादी संकल्पना (द्वितारक परिकल्पना) अर्थात दो आकाशीय पिंडों के सम्मिलित होने की संकल्पना और आधुनिक संकल्पना।

अद्वैतवादी या एकात्मक संकल्पना

इस परिकल्पना के अनुसार सौरमंडल की उत्पत्ति क्रमिक विकासात्मक प्रक्रिया के कारण एक तारे से हुई है। कॉण्ट, लाप्लास, रोशे और लॉकियर की संकल्पनाएँ इस श्रेणी में आती हैं।

कॉण्ट की गैसीय परिकल्पना

जर्मन दार्शनिक कॉण्ट ने 1755 में इस परिकल्पना को इस दावे के साथ प्रस्तुत किया था कि ये परिकल्पना न्यूटन के गुरूत्वाकर्षण के पहले नियम और घूर्णी गति के सिद्धान्तों पर आधारित है। उनके अनुसार ब्रह्माण्ड में आदि द्रव्य के असंख्य कण बिखरे हुए थे और इन कणों ने गुरूत्वाकर्षी आकर्षण के कारण एक दूसरे के साथ टकराना आरंभ कर दिया। इस टक्कर के कारण ताप उत्पन्न हुआ। इस ताप ने आदि द्रव्य को ठोस से द्रव्य और द्रव से गैसीय अवस्था में परिवर्तित कर दिया। अतः ठंडा और गतिहीन मूल द्रव्य का मेघ समय के साथ एक विशाल तप्त निहारिका में परिवर्तित हो गया और अपने अक्ष पर घूर्णन करने लगा और आदिकणों की संख्या में निरंतर वृद्धि के कारण निहारिका का आकार बढता गया। इस प्रकार निहारिका के आकार में निरंतर वृद्धि के कारण घूर्णन की गति इतनी तीव्र हो गई कि अपकेन्द्री बल अभिकेन्द्री बल से अधिक हो गया। इससे गैसीय पिंड के केन्द्र में उभार बन गया। जब ये उभार आकार में बड़ा हो गया, तो एक के बाद एक वलय बनने लगे और निहारिका के मध्य भाग से अलग हो गए और अपकेन्द्री बल के कारण बाहर फेंक दिए गए। अवशेषी मध्य पिंड सूर्य बन गया और शेष कुछ अन्य वलय ग्रह बन गए। इसी प्रक्रिया की पुनरावर्ती से वलय नए बने ग्रहों से पृथक हो गए और प्रत्येक वलय के पदार्थ संघनित होकर उस ग्रह के उपग्रह बन गए।

आलोचनात्मक विश्लेषण

  1. कॉण्ट ने आदि द्रव्य के स्रोत को नहीं समझाया है।
  2. कॉण्ट ने कहा कि आदि द्रव्य के कणों में गुरूत्वाकर्षण की ऊर्जा के कारण टक्कर होने लगी। उन्होंने यह नहीं समझाया कि किस प्रकार ऊर्जा का वह स्रोत जिसने इन कणों में गति उत्पन्न की (जो आरंभिक अवस्था में ठंडे और गतिहीन थे) अचानक सक्रिय हो गया।
  3. गति के नियम के अनुसार, कणों की टक्कर से कभी घूर्णी गति उत्पन्न नहीं होती है।
  4. कॉण्ट की परिकल्पना में निहारिका के घूर्णन की गति गैसीय द्रव्य के आकार में वृद्धि के साथ बढ़ गई थी, यह भी गति के नियम के वैज्ञानिक सिद्धान्त के विपरीत है।

निष्कर्ष

यद्यपि, आरंभ में कॉण्ट की परिकल्पना को व्यापक स्तर पर सराहना मिली लेकिन बाद में इसे नकार दिया गया क्योंकि यह अनुमान और न्यूटन के गुरूत्वाकर्षण के नियम के गलत अनुप्रयोग तथा अमान्य संकल्पनाओं पर आधारित थी। लेकिन, फिर भी हम इस तथ्य को नहीं नकार सकते हैं कि यह पृथ्वी की उत्पत्ति के रहस्य को सुलझाने के लिए किया गया पहला वैज्ञानिक प्रयास था।

लाप्लास की निहारिका परिकल्पना

कॉण्ट ने लाप्लास से पहले इस परिकल्पना को प्रस्तुत किया था, इसलिए लाप्लास को कॉण्ट की परिकल्पना की कमजोरियों और गलतियों को दूर करके उसे परिष्कृत करने का अवसर मिल गया। अतः हम लाप्लास की परिकल्पना को कॉण्ट की परिकल्पना का परिष्कृत रूप मान सकते हैं। लाप्लास ने सौरमंडल और पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में अपनी संकल्पनाओं को वर्ष 1796 में अपनी पुस्तक ‘एक्सपोसीजन ऑफ द वर्ल्ड सिस्टम्स’ में समझाया था। उनके अनुसार एक विशाल और तप्त गैसीय द्रव्य जिसे निहारिका कहते हैं-अंतरिक्ष में विद्यमान था, जो निरंतर अपने अक्ष पर घूर्णन कर रहा था। ये निहारिका बाहरी सतह से विकिरण की प्रक्रिया के कारण ताप लुप्त कर रही थी और यह इस तरह ठंडी होकर आकार और आयतन में शीतलन के कारण होने वाले संकुचन की वजह से कम हो रही थी। जब निहारिका का आकार और आयतन कम हो गया, तो घूर्णीय गति का वेग बढ़ने लगा। यह इतना बढ़ गया कि अपकेन्द्री बल अभिकेन्द्री बल से अधिक हो गया। बाद में, एक ऐसी अवस्था आई, जब अपकेन्द्री और गुरूत्वाकर्षी खिंचाव मध्य उभार पर बराबर हो गए जिसने इसे भारहीन बना दिया। इसके फलस्वरूप वलयों में विलगाव होने लगा और वे संकुचनशील निहारिका के मध्य उभार से अलग होने लगे। अतः बाहरी वलय (परतें) एक-एक करके निहारिका से पृथक होने लगे। प्रत्येक वलय एक बिंदु पर गैसीय संचयन के रूप में संघनित हो गया और निहारिका के चारों ओर चक्कर लगाने लगा। इसी गैसीय द्रव्य के ठंडा होने से बाद में ग्रहों का निर्माण हुआ। इस प्रकार निहारिका का शेष भाग सूर्य बन गया और नौ वलय ग्रह बन गए। उपग्रहों का निर्माण भी उपरोक्त प्रक्रिया की पुनरावर्ती से हुआ है। इससे हम ये निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि लाप्लास ने ये माना था कि सौरमंडल और ग्रहों सभी की उत्पत्ति समान स्रोत से हुई है। ये परिकल्पना अत्यधिक महत्त्व की है। शनि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले वलय लाप्लास के सिद्धान्त का समर्थन करने के लिए बेहतरीन उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त ब्रह्माण्ड में अनेक निहारिकाएँ विद्यमान हैं जो उनके मत का समर्थन करती हैं। जब घूर्णन करने

वाले पिंड का व्यास कम होता है तो उसकी घूर्णन की गति बढ़ जाती है। लाप्लास का यह मत गति विज्ञान के नियमों के अनुकूल है। ग्रहों के निर्माण में समान प्रकार के तत्वों की उपस्थिति भी उनके मत को सही साबित करती है। लाप्लास के अनुसार, सभी ग्रहों का निर्माण गैसीय पिंड के ठंडा होने से हुआ है। इस गैसीय पिंड की ऊपरी परत ठोस बन गई लेकिन भीतरी भाग अभी भी द्रव अवस्था में है। ज्वालामुखियों से निकलने वाला तरल लावा उनकी परिकल्पना का समर्थन करता है। इसी कारण इस परिकल्पना को पचास वर्षों से अधिक समय तक समर्थन मिला। लेकिन, क्योंकि प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं, इस परिकल्पना की भी अपनी कमियाँ हैं।

आलोचनात्मक विश्लेषण

  1. लाप्लास ने माना कि अंतरिक्ष में गर्म तप्त निहारिका विद्यमान थी। लेकिन उन्होंने निहारिका की उत्पत्ति के स्रोत और उस स्रोत के विषय में नहीं बताया जहाँ से उसे ताप और घूर्णन गति मिल रही थी।
  2. लाप्लास ने ये नहीं समझाया कि निहारिका से अलग हुए अनियमित वलय से सिर्फ नौ वलय क्यों बने, उससे कम या अधिक वलय क्यों नहीं बने।
  3. यदि ग्रह घूर्णी निहारिका से बने हैं तो निहारिका का एक भाग अर्थात सूर्य की आकार में कमी के कारण सबसे तेज गति से घूर्णन करना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है।
  4. आलोचक ये मानते हैं कि यदि सूर्य निहारिका का शेष भाग है, तो इसमें मध्यभाग में उभार होना चाहिए लेकिन ऐसा नही हैं।
  5. लाप्लास की परिकल्पना के अनुसार सभी ग्रहों को अपने जनक ग्रह की दिशा में परिक्रमा करनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि शुक्र और अरुण अपने जनक ग्रह के विपरीत दिशा में परिक्रमा करते हैं।
  6. यदि हम लाप्लास के मत को स्वीकार करें कि ग्रहों का निर्माण निहारिका से हुआ है तो ग्रहों को आरंभिक अवस्था में तरल अवस्था में होना चाहिए था, और इसलिए वे सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने में समक्ष नहीं थे क्योंकि केवल ठोस द्रव्य ही गोलाकार पथ में अपने आकार को खोए बिना परिक्रमा कर सकता है।
  7. अंग्रेज भौतिक विज्ञानी जेम्स क्लार्क मैक्सवेल एवं सर जेम्स जीन्स ने दिखाया कि वलयों का द्रव्यमान अलग-अलग निर्मित ग्रहों के निर्माण हेतु गुरूत्वाकर्षण प्रदान करने के लिए पर्याप्त नहीं था।
  8. एस. डब्लू. वुडरिज और आर. एस. मोर्गन के अनुसार निहारिका के कणों के बीच अल्प मात्रा में संबद्धता से वलय का निर्माण सतत् रूप से होगा, आन्तरायिक प्रक्रिया के रूप में नहीं।

चित्र 1.4 : नहारिकीय परिकल्पना वर्णित करती है कि किस प्रकार एक डिस्क में सौरमंडल का निर्माण हुआ। सूर्य इस सौरमंडल के केन्द्र में स्थित है। यह चित्र एक चित्रकार द्वारा निर्मित है : यह आदि ग्रहीय डिस्क का वास्तविक चित्र नहीं है।

बोध प्रश्न 

  1. आंतरिक और बाह्य ग्रहों के मध्य क्या अन्तर हैं।
  2. क्षुद्रग्रह कहाँ पाए जाते हैं? क्षुद्रग्रहों के तीन समूहों के नाम बताइए।

द्वैतवादी संकल्पना

द्वैतवादी संकल्पना (द्वैतारक परिकल्पना) के अनुसार, सौरमंडल की उत्पत्ति दो तारों से हुई है। जेम्स जीन्स, चैंबर्लिन और मोल्टन, वेटजैकर और रसेल की परिकल्पनाएँ इस श्रेणी में आती हैं।

चैम्बरलिन एवं मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना

टी. सी. चैम्बरलिन जो कि एक भूविज्ञानी थे, ने एक खगोल विज्ञानी फॉरेस्ट रे मॉल्टन के साथ मिलकर एक परिकल्पना प्रस्तुत की जिसे ‘ग्रहाणु परिकल्पना’ कहा जाता है। इस परिकल्पना के अनुसार, ग्रहों की उत्पत्ति ग्रहाणुओं (Planetesimals) से हुई है। उनका मानना था कि दो बड़े तारे अर्थात सूर्य और एक साथी तारा ब्रहमांड में आरंभिक अवस्था में विद्यमान थे। सूर्य वर्तमान सूर्य से कहीं अधिक बड़ा था और अत्यंत छोटे, ठंडे एवं ठोस कणों से मिलकर निर्मित हुआ था। साथी तारा अपने पथ पर गति कर रहा था और

ऐसा करते हुए वह सूर्य के निकट आ गया। तारे द्वारा डाले जाने वाले गुरुत्वाकर्षी खिंचाव के कारण सौर ज्वार उत्पन्न हुआ और सूर्य की बाहरी परत से बड़ी संख्या में कण पृथक हो गए। उन्होंने इन कणों को ग्रहाणु कहा।

ये ग्रहाणु गतिशील तारे के साथ नहीं जुड़े क्योंकि जब तक ये वहाँ पहुंचते तारा अपने पथ पर आगे चला गया और और अंतरिक्ष में विलुप्त हो गया। ये ग्रहाणु आदि सूर्य द्वारा आकर्षित हो गए और सूर्य के इर्द गिर्द परिक्रमा करने लगे। ये ग्रहाणु भिन्न आकारों के थे। अपेक्षाकृत बड़े ग्रहाणुओं ने केन्द्रक का काम किया और छोटे ग्रहाणुओं को अपनी तरफ आकर्षित किया। धीरे-धीरे बड़े ग्रहाणु और बड़े हो गए और वर्तमान ग्रह बन गए।

आलोचनात्मक विश्लेषण

  1. जैफरी ने यह कहकर परिकल्पना की आलोचना की कि इतने बड़े ग्रह सूर्य से बाहर निकले पदार्थ से नहीं बन सकते हैं।
  2. ये पूर्वानुमान कि केन्द्रक के आकार में वृद्धि ग्रहाणुओं के संयोजन के कारण हुई थी, पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।

जेम्स जीन्स और जैफरी की ज्वारीय परिकल्पना

सर जेम्स ने 1919 में पृथ्वी की उत्पत्ति को समझाने के लिए ज्वारीय परिकल्पना प्रस्तुत की। बाद में हैरॉल्ड जैफरी ने कुछ सुझाव दिए जिनके समावेशन से, ये परिकल्पना अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो गई। इस परिकल्पना के अनुसार, सूर्य गैस के एक बड़े पिंड के रूप में स्थित था जो ब्रह्माण्ड में अपने निजी अक्ष पर घूर्णन कर रहा था। सूर्य के साथ ही, एक अन्य तारा विद्यमान था जिसे अंर्तवेधी तारा कहते हैं जो सूर्य से कई गुना अधिक बड़ा था।

जब ये तारा सूर्य के निकट आया, तो इस तारे द्वारा डाले गए गुरूत्वाकर्षी खिंचाव के कारण सूर्य की बाहरी सतह पर ज्वार आने लगे। जब ये अंर्तवेधी तारा सूर्य के निकटतम बिंदु तक पहुँच गया तो ज्वार की ऊँचाई और आकार में वृद्धि हो गई। परिणामस्वरूप, सूर्य से बड़ी मात्रा में द्रव्य बाहर निकला और एक सिगार के आकार का ज्वार तंतु निर्मित हुआ जिसकी लंबाई हजारों किलोमीटर थी। जेम्स जीन्स ने इस बाहर निकले सिगार के आकार के द्रव्य को तंतु नाम दिया क्योंकि ये केन्द्र में मोटा और किनारों पर पतला था। ये तंतु सूर्य से अलग होकर अंर्तवेधी तारे की तरफ आकर्षित हुआ लेकिन तब तक अंतर्वेधी तारा अपने पथ पर आगे बढ़ चुका था।

इसलिए ये तंतु न तो सूर्य के साथ और न ही तारे के साथ मिल सका। इस तंतु ने बाद में गुरूत्वाकर्षण के प्रभाव में सूर्य की परिक्रमा आरंभ कर दी। गुरूत्वाकर्षी खिंचाव और संघनन के कारण तंतु के तरल द्रव्य से गांठे बननी आरंभ हो गई। ये गांठदार तंतु पुनः संघनित हो गया और इससे विभिन्न ग्रहों का निर्माण हुआ। ज्वारीय प्रभाव के कारण तंतु केन्द्र में मोटा और सिरों पर पतला बना रहा। परिणामस्वरूप इस तंतु से बने ग्रह केन्द्र में बड़े और पार्श्व भागों में छोटे हैं।

इस परिकल्पना की विशेषताएँ

  1. यदि सभी ग्रहों को एक रेखा में व्यवस्थित कर दिया जाए, तो हम देखेंगे कि बड़े ग्रह केन्द्र में और अपेक्षाकृत छोटे ग्रह सिरों पर स्थित हैं। यह सिगार के आकार की व्यवस्था इस परिकल्पना का समर्थन करती है।
  2. जेम्स की परिकल्पना की अन्य विशेषता यह है कि उपग्रहों की व्यवस्था भी सिगार के आकार की है, यह पुनः इस पकिरल्पना का समर्थन करती है।
  3. अपेक्षाकृत छोटे ग्रहों को ठंडा होने में कम समय लगता है, अतः इन ग्रहों में या तो बहुत कम अथवा कोई उपग्रह नहीं हैं। बड़े ग्रह अधिक समय तक गर्म रहे थे, अतः उनमें अधिक उपग्रह है।
  4. इस परिकल्पना में, ये माना गया है कि सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य के पृथक तंतु से हुई है। सभी ग्रह समान द्रव्य से निर्मित हैं जो पुनः इस परिकल्पना का समर्थन करता है।
  5. यह परिकल्पना सफलतापूर्वक इस तथ्य को सिद्ध करती है कि सभी ग्रह एक ही समय पर निर्मित हुए हैं।

आलोचनात्मक विश्लेषण

  1. डेलेविन जैसे समीक्षकों के अनुसार, ब्रह्माण्ड के विभिन्न तारों के बीच की दूरी बहुत अधिक है, अतः तारे के सूर्य के इतने अधिक निकट आ जाने की संभावना बहुत कम है, कि वह सूर्य के गुरूत्वाकर्षण बल द्वारा प्रभावित हो सके।
  2. रूसेल के अनुसार, इसकी कोई संभावना नहीं है कि सूर्य से तंतु द्वारा इतनी अधिक मात्रा में पदार्थ बाहर निकल आया हो कि इतनी अधिक दूरियों पर स्थित ग्रहों का निर्माण हो सके।
  3. कुछ वैज्ञानिकों का ये मत है कि ग्रह गैसीय तंतु के ठंडा होने से नहीं बन सकते हैं। बल्कि वे ऐसा मानते हैं कि गैसीय तंतु ब्रह्माण्ड में अत्यधिक उच्च तापमानों की उपस्थिति के कारण संभवतः लुप्त हो गया हो।
  4. अनेक खगोल-भौतिक विज्ञानियों का ये मत है कि तारे द्वारा ग्रह पर डाला गया कोणीय संवेग हमारे सौरमंडल के ग्रहों में विद्यमान कोणीय संवेग से मेल खाने के लिए पर्याप्त रूप से उच्च नहीं था।

रूसेल की द्वितारा परिकल्पना

रूसेल का ये मानना था कि आदि सूर्य के निकट दो तारे स्थिथत थे। ये साथी तारा (Companion star) और अवतरण तारा (Approaching star) कहलाते हैं। साथी तारा सूर्य के चतुर्दिक परिक्रमा कर रहा था। बाद में, अवतरण तारा साथी तारे के निकट आया और उसने भी परिक्रमा करना आरंभ कर दिया। इस तारे की दिशा साथी तारे की दिशा के विपरीत थी। रूसेल ने माना कि तारों के बीच की दूरी संभवतः 45 से 65 लाख किलोमीटर थी। अतः अवतरण तारा, साथी तारे की अपेक्षा सूर्य से कहीं अधिक दूरी पर रहा होगा एवं अवतरण तारे के ज्वारीय बल का सूर्य पर कोई प्रभाव नहीं रहा होगा। लेकिन साथी तारा अत्यधिक गुरूत्वाकर्षण बल के कारण निश्चित रूप से अवतरण तारे की ओर आकर्षित हुआ होगा। जब ये दोनों तारे निकट आए तो इनके बीच के गुरूत्वाकर्षण और ज्वारीय बल में वृद्धि हो गई जिससे साथी तारे के केन्द्र में उभार बन गया। जब अवतरण तारा साथी तारे के निकट आया तो अवतरण तारे के गुरूत्वाकर्षण बल के कारण इसमें से विशाल मात्रा में द्रव्य बाहर निकला। बाहर निकला हुआ द्रव्य अवतरण तारे की दिशा में अर्थात् साथी तारे के परिक्रमण की विपरीत दिशा में परिक्रमण करने लगा। ग्रहों का निर्माण साथी तारे से बाहर निकले द्रव्य से हुआ था और उपग्रहों का निर्माण ग्रहों द्वारा बाहर निकले हुए द्रव्य के परस्पर आकर्षण के कारण हुआ था।

आलोचनात्मक विश्लेषण

  1. रूसेल ने साथी तारे से बाहर निकले द्रव्य से ग्रहों के निर्माण को समझाया है

लेकिन, उन्होंने ये नहीं समझाया कि साथी तारे के शेष भाग का क्या हुआ।

  1. उन्होंने यह भी नहीं समझाया कि विशाल अवतरण तारे के अपने पथ पर आगे बढ़ने के बाद ग्रहों ने सूर्य की परिक्रमा क्यों आरंभ कर दी?

बोध प्रश्न 

जेम्स जीन्स ने बाहर निकले द्रव्य को सिगार के आकार का क्यों बताया?

आधुनिक संकल्पना

फोएल और लिटिलटन की नवतारा परिकल्पना

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के दो गणितज्ञों एफ. फोएल और लिटिलटन ने वर्ष 1946 में अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया जिसे नवतारा परिकल्पना के नाम से जाना जाता है। ये परिकल्पना नाभिकीय भौतिकी पर आधारित थी। किसी भी तारे द्वारा प्रकाश, ऊष्मा आदि के रूप में उत्सर्जित की जाने वाली ऊर्जा नाभिकीय विखण्डन नामक प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न होती है। उनके अनुसार भारी तत्वों ने ग्रहों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ये भारी तत्व तब बनते हैं जब अपेक्षाकृत हल्के तत्वों के परमाणु अत्यधिक ताप और दाब के कारण मिल जाते हैं और बड़ी मात्रा में ऊर्जा को निर्मुक्त करते हैं। ये भारी तत्व ग्रहों के कुल द्रव्यमान का 90% भाग बनाते हैं। तारों के निर्माण में प्रमुख घटक हाइड्रोजन है। जबकि ग्रहों में 1% से कम हाइड्रोजन होती है। वैज्ञानिक एफ. फोएल और लिटिलटन ने दिखाया कि भारी तत्व हाइड्रोजन के दहन से भी उत्पन्न होते हैं। लेकिन एक सामान्य तारा जैसे सूर्य सिर्फ हीलियम जैसे तत्व ही निर्मित कर सकता है। भारी तत्वों का बनना तभी संभव है जब उच्च तापमान पर हाइड्रोजन का दहन हो। ऐसा उच्च तापमान सिर्फ नवतारा या सुपरनोवा तारों में उपलब्ध होता है। कोई तारा नवतारा या सुपरनोवा तारा तब बनता है जब उसमें बहुत कम हाइड्रोजन बची रह जाती है जो दहन के लिए पर्याप्त नहीं होती है। हाइड्रोजन ऊर्जा स्र्रोत है जो हीलियम में रूपांतरित होकर ऊर्जा उत्पन्न करती है। हाइड्रोजन की कमी की स्थिति में तारा ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए संकुचित हो जाता है। संकुचित हो जाने पर तारे की घूर्णन की गति बढ़ जाती है। अधिक घूर्णीय गति के कारण केन्द्र में बल बढ़ जाता है। इसके परिणामस्वरूप तारा पहले हल्के द्रव्य और फिर भारी तत्वों को बाहर निकालता है। ब्रह्माण्ड में भारी तत्वों का निर्माण सिर्फ इसी अवस्था में संभव है। जब भारी धातुओं को दूर फेंक दिया जाता है तो अंतरिक्षीय प्रकाश जो सूर्य के प्रकाश से कई लाख गुना अधिक होता है, केन्द्र में दिखाई देता है। अत्यधिक प्रकाश उत्सर्जित करने के कारण ये तारे नवतारा कहलाते हैं। इन वैज्ञानिकों के अनुसार ग्रहों का निर्माण ऐसे नवतारों के विस्फोट से हुआ है। नवतारा के विस्फोट से अत्यधिक ताप उत्पन्न हुआ है जो 5×109 डिग्री सेल्सियस के तुल्य था जो नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया को आरंभ करने के लिए पर्याप्त था। उनके अनुसार वहाँ उपस्थित दो तारे सूर्य और नवतारा या सुपरनोवा तारा थे। इन दोनो तारों के बीच की दूरी इतनी ही थी जितनी सूर्य और बृहस्पति के बीच की है। नवतारे के विस्फोट से अत्यधिक ताप और दाब उत्पन्न हुए जिससे आदि पृथ्वी का निर्माण हुआ। इस प्रकार हमारे सौरमंडल के ग्रहों का निर्माण उस डिस्क रूपी द्रव्य के संघनन से हुआ था जो नवतारा या सुपरनोवा के विस्फोट के कारण बाहर निकला द्रव्य था।

आलोचनात्मक विश्लेषण

  1. यह परिकल्पना तारों के जोड़ों की उत्पत्ति का समर्थन नहीं करती है।
  2. यह ग्रहों की उनकी घूर्णन की दिशा, उनके आकार, परिक्रमा के तल, ग्रहों के पथ और हमारे सौरमंडल के बाह्य वृत्त के ग्रहों की अपेक्षाकृत हल्के तत्वों के आधार पर ग्रहों की विशिष्ट व्यवस्था को नहीं समझाती है।

बिगबैंग अथवा महाविस्फोट परिकल्पना

इस परिकल्पना को लिमाइत्रे द्वारा 1950-60 में प्रस्तुत किया गया और इसे 1972 में मान्यता प्राप्त हुई। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड में सभी द्रव्य एक सघन और विशाल आदि द्रव्य के रूप में पाए जाते थे। इस आदि द्रव्य में तीव्र विस्फोट के फलस्वरूप इस द्रव्य में उपस्थित धूलि कण ब्रह्माण्ड में फैल गए और उन्होंने वर्तमान ब्रह्माण्ड की रचना की। उद्भव के नए तथ्यों के आधार पर होएल ने भी ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति को सैद्धान्तिक रूप दिया।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फन्डामेन्टल रिसर्च (टी.आई.एफ.आर.) के दो भारतीय वैज्ञानिक गोविन्द स्वरूप और विजय कपाही भी महाविस्फोट सिद्धान्त के इस विषय पर कार्य कर रहे हैं। उनके मतानुसार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति लगभग 2 अरब वर्ष पूर्व आग के एक विशाल गोले के विस्फोट से हुई थी, जो आदि द्रव्य से बाहर निकाले गए द्रव्य से बना था। यू.एस.ए. (USA) में, महाविस्फोट सिद्धान्त की स्थितियों को निर्मित करने के लिए एक मॉडल तैयार किया गया है। बर्कले युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने माइक्रोवेव विकिरण का अध्ययन करने के लिए हीलियम गुब्बारों का प्रयोग किया और महाविस्फोट सिद्धान्त का समर्थन किया। यूरोपियन ऑर्गनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च (सी.ई.आर.एन., जेनेवा) में 5000 से अधिक वैज्ञानिकों द्वारा परीक्षण किया जा रहा है। ये वैज्ञानिक महाविस्फोट की स्थिति उत्पन्न करने के लिए अनुसंधान कार्य कर रहे हैं।

एसी बनर्जी की सीफीड परिकल्पना

डेल्टा सीफीड नामक तारे को देखने के बाद बनर्जी वर्ष 1942 में सौरमंडल की उत्पत्ति के विषय में अपनी परिकल्पना प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित हुए। उनके अनुसार ब्रह्माण्ड में कुछ तारे निरंतर संकुचित और विस्तारित होते रहते हैं। यह प्रक्रिया तारों का स्पन्दन कहलाती है और इस प्रक्रिया को करने वाले तारे सीफीड परिवर्ती कहलाते हैं। ब्रह्मांड में तारों के एक समूह में ऐसे तारे भी पाए जाते हैं। इन तारों की चमक निरंतर परिवर्तित होती रहती है। इन तारों के प्रकाश में यह क्रमिक परिवर्तन संकुचन और विस्तार की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप होता है। इनके अनुसार जब कोई अंर्तवेधी तारा ऐसे सीफीड तारे के निकट से गुजरा होगा तो सीफीड तारे का संपादन अंतर्वेधी तारे के गुरुत्वाकर्षण के कारण बढ़ गया होगा। फलस्वरूप, अंतर्वेधी तारे द्वारा सीफीड तारे से अत्यधिक मात्रा में द्रव्य को अपनी ओर खींचा गया। इस द्रव्य के संघनन ने ग्रहों को अवशेषी पदार्थ निकालने के लिए विवश किया और वह भाग सूर्य बन गया। ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने लगा। तब तक अंर्तवेधी तारा अपने पथ पर काफी दूर निकल गया।

इन सिद्धान्तों के अतिरिक्त कुछ सिद्धांत और भी हैं, जिन्हें हाल ही में प्रस्तुत किया गया है। उनमें से कुछ प्रमुख के नाम नीचे दिए गए हैं।

  • रोजगन की घूर्णीय और ज्वारीय परिकल्पना
  • क्यूपर की परिकल्पना
  • फोसेनकोव की ग्लोब्यूल या गोलिका संकल्पना
  • वोटकेविक की प्रोटोप्लेनेटरी या आदिग्रहीय संकल्पना
  • कोन्ड्रल की संकल्पना (1971)
  • ई.एम. ड्रोबीस्वस्की की बृहस्पति सूर्य द्वि-प्रणाली परिकल्पना

नोट: यदि संभव हो तो इनके बारे में इंटरनेट पर खोज करें।

सारांश

इस इकाई में आपने पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में निम्नलिखित संकल्पनाओं और मुख्य विषयों के बारे में पढ़ा है :

  • हमारे सौरमंडल में औसत आकार और प्रदीप्ति का एक तारा, सूर्य और ग्रह तथा उनके उपग्रह, असंख्य पुच्छलतारे, क्षुद्र तारे, उल्का पिंड और अन्तराग्रहीय माध्यम आदि पाए जाते हैं।
  • ग्रह, अधिकांश उपग्रह और क्षुद्रतारे सूर्य के चारों ओर एक ही दिशा में (वामावर्त) लगभग वृत्ताकार कक्षाओं में (दीर्घवृत्त लेकिन बहुत कुछ वृत्त जैसे) चक्कर लगा रहे हैं। जब हम सूर्य व ग्रहों को उत्तर ध्रुव के सापेक्ष ऊपर से देखते हैं तो ग्रह वामावर्त घूमते दिखाई देते हैं (शुक्र एवं अरुण ग्रह इस संदर्भ में अपवाद हैं)।
  • आपने पढ़ा कि 2006 में ग्रहों के एक नए वर्ग वामन ग्रहों को सम्मिलित किया गया है। ऐसे ग्रह अधिकतर क्षुद्र तारा पट्टी और क्यूपर पट्टी में स्थित हैं।
  • यही नहीं, ग्रह सूर्य की उसी अथवा निकटतल में परिक्रमा करते हैं जिसे क्रांतिवृत्त तल कहते हैं। वैज्ञानिक प्लूटो को एक विशेष वामन ग्रह भी मानते हैं क्योंकि इसकी कक्षा सबसे अधिक अवनत है (18 डिग्री) और ये सभी ग्रहों में सबसे अधिक दीर्घवृत्तीय है। सूर्य में सौरमंडल का 99.85% द्रव्य निहित है।
  • आपने यह भी पढ़ा है कि, जो ग्रह द्रव्य की उसी डिस्क से संघनित हुए है जिसने सूर्य को बनाया है उनमें सौरमंडल के द्रव्यमान का सिर्फ 0.13% द्रव्यमान है। बृहस्पति में शेष सभी ग्रहों के संयुक्त द्रव्यमान से दोगुने से भी अधिक द्रव्यमान निहित है।
  • चार प्राथमिक पार्थिविक पिंड सौरमंडल के सबसे भीतरी ग्रह हैं। ये बुध, शुक, पृथ्वी और मंगल हैं। इसके अतिरिक्त 8 अन्य पार्थिविक पिंड भी हैं : चंद्रमा, लो, यूरोपा, गेनीमीड, कैलिस्टो (चार गैलीलियन चंद्रमा)। टाइटन (शनि का चंद्रमा), ट्रिटॉन (वरूण का चंद्रमा) और प्लूटो। इन्हें पार्थिविक इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनमें पृथ्वी के जैसी सतह, पथरीली ठोस सतह होती है और ये गोलाकार हैं। अन्य चंद्रमा गोलाकार नहीं हैं और क्षुद्रतारों जैसे (अर्थात् अनियमित) आकार के हैं। शुक्र, पृथ्वी, मंगल और टाइटन में पर्याप्त मात्रा में वायुमंडल विद्यमान है। शेष पिण्डों में यह अत्यंत अल्प है अथवा अनुपरिथत है।
  • बृहस्पति, शनि, अरुण (यूरेनस) और वरूण जोवियन (बृहस्पति जैसे) ग्रह कहलाते हैं क्योंकि ये आकार और संरचना में समान अर्थात् पृथ्वी की तुलना में विशाल हैं और इनमें तरल, गैसीय प्रकृति पाई जाती है। जोवियन ग्रहों को ‘गैस जाइन्ट्स’ भी कहा जाता है। यद्यपि इन सभी में इनके सघन वायुमंडल के नीचे छोटा, अर्धठोस कोर या मध्यभाग हो सकता है। ये सभी ग्रह भी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं।
  • ग्रह अथवा चंद्रमा शब्द का चयन पिंड के द्रव्यमान अथवा आकार से नहीं किया जाता है (उदाहरण के लिए, शनि का चंद्रमा टाइटन बुध ग्रह से बड़ा है)। ग्रह के चक्रण की अवधि का निर्धारण समय और खगोलभिति (तारकीय और ग्रहीय रिथतियों को मापने का विज्ञान) द्वारा होता है। घूर्णन की अवधि का निर्धारण समय मापक, सतह गुणों, समय मापक मेघों अथवा वायुमंडलीय गुणों, सूर्य के परावर्तित प्रकाश (प्रकाश वक्रों) अथवा ग्रह भुजा के डाप्लर रडार मापनों द्वारा किया जाता है।

आपने पढ़ा और नोट किया है कि वायुमंडलीय विशेषताओं के काल मापन से पता चलता है कि जोवियन ग्रहों का घूर्णन विभेदी होता है (यानी उनकी भूमध्यरेखा ध्रुव क्षेत्रों से अधिक तेजी से घूर्णन करती है अर्थात् ग्रह ठोस नहीं है)।

ग्रहों के विषय में हमें इन पद्धतियों से जानकारी प्राप्त होती है।

  • प्रकाशमिति > तापमान; सतही गुणों, एल्बीडो के द्वारा
  • स्पैक्ट्रोस्कोपी > रासायनिक संयोजन द्वारा
  • राडार मानचित्रण > सतही स्थलाकृति द्वारा
  • अंतरिक्ष अनुसंधान > विश्लेषण, सर्वेक्षण, नमूने, चुंबकीय क्षेत्र द्वारा
  • सौरमंडल निर्माण की संकल्पनाओं द्वारा

आपने ये भी पढ़ा कि सौरमंडल निर्माण के किसी भी मॉडल में निम्नलिखित तथ्यों को स्पष्ट करना चाहिए :

  • ग्रहों की सभी कक्षाएँ पुनःक्रमणी (Prograde) है (अर्थात् सूर्य के उत्तरी ध्रुव के ऊपर से देखे जाने पर ये सभी वामावर्त दिशा में परिक्रमा करती है)। (शुक्र/अरुण को छोड़कर)
  • सभी ग्रहों में कक्षीय तल होते हैं जो एक-दूसरे के सापेक्ष 6 डिग्री से कम पर झुके रहते हैं अर्थात् सभी एक ही तल में होते हैं।
  • सभी ग्रहों की अल्प उत्केन्द्रताएँ होती हैं।
  • सभी ग्रहों में पुनःक्रमणी चक्रण होता है सिर्फ शुक्र और यूरेनस (अरुण) में ऐसा नहीं होता है।

अंत में कुछ प्रश्न

  1. सौरमंडल की पाँच विशेषताएँ लिखिए।
  2. लाप्लास की निहारिका परिकल्पना का समीक्षात्मक विश्लेषण कीजिए।
  3. एसी बनर्जी की सीफीड परिकल्पना पर लघु टिप्पणी लिखिए।

अंत में कुछ प्रश्न

  1. सौरमंडल की पाँच विशेषताओं का उत्तर यथावत् देने के लिए आप अनुभाग 1.3 को देखिए।
  2. लाप्लास की निहारिका परिकल्पना का समीक्षात्मक विश्लेषण करने के लिए आप उप-अनुभाग 1.4.1 को देखिए।
  3. सीफीड परिकल्पना पर लघु टिप्पणी लिखते समय ए.सी. बैनर्जी द्वारा प्रस्तुत मुख्य तर्कों का उल्लेख करने के लिए आप उप-अनुभाग 1.4.2 को देखिए।

संदर्भ / अन्य पाठ्य सामग्री

  1. Hess, D. (2012). Physical Geography, PHI Learning Pvt. Ltd, New Delhi.
  2. Lutgens, F.K. and Edward, J.T. (2015). Foundation of Earth Science.

Pearson Education, Inc., Noida, India.

  1. Singh, S. (2012). Physical Geography. Prayag Pustak Bhawan, Allahabad.
  2. Strahler, A. N. and Strahler, A. M. (2006). Modern Physical Geography. Cambridge Publications, New Delhi.
  3. सिंह सविन्द्र : भौतिक भूगोल, वसुन्धरा प्रकाशन, गोरखपुर।
  4. भल्ला व अग्निहोत्री : भौतिक भूगोल, कुलदीप पब्लिकेशन्स, जयपुर।
  5. शर्मा, एच.एस., शर्मा एम.एल., मिश्रा, आर.एन. : भौतिक भूगोल, पंचशील प्रकाशन, जयपुर ।
  6. मामोरिया, चतुर्भुज, जोशी, रतन : भौतिक भूगोल, साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा।

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