अंतर्जनित बल

7.1 प्रस्तावना उद्देश्य

7.2 अंतर्जनित बल: मौलिक संकल्पनाएँ और वर्गीकरण

7.3 पटल-विरूपणी बल महादेश जनित संचलन पर्वतोत्पत्ति संबन्धी गतियाँ

7.4 ज्वालामुखीयता, ज्वालामुखियों के प्रकार ज्वालामुखियों का वितरण

7.5 भूकंप

भूकंप कैसे आते हैं?

भूकंपीय तरंगें

भूकंप का विस्तार और तीव्रता

7.6 सारांश

7.7 अंत में कुछ प्रश्न

7.8 उत्तर

7.9 संदर्भ / अन्य पाठ्य सामग्री

7.1 प्रस्तावना

इस खंड की इकाई 5 और 6 में, आपने सथलमंडल और भूपर्पटी के तत्वों के विषय में पढ़ा था। अब आप महाद्वीपों और महासागर बेसिनों की प्लेटों की गति और भूपर्पटी की संरचना के विषय में जान गए हैं। भूपर्पटी के विभिन्न संघटकों की गति पृथ्वी के आंतरिक बलों के उत्पन्न होने का एक कारण है। ये बल अंतर्जनित बल कहलाते हैं। यद्यपि, अंतर्जनित बल पृथ्वी के आंतरिक भाग में सक्रिय रहते हैं लेकिन इनके कुछ परिणाम पृथ्वी की सतह पर भी दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए पृथ्वी की भू-आकृति और अन्य स्थलाकृतिक विशेषताएँ जैसे पर्वत, पठार, चट्टानें, घाटियाँ और दर्रे अंतर्जनित बलों के कारण निर्मित हुए हैं। अतः आपको अंतर्जनित बलों के विषय में पढ़ना बहुत महत्वपूर्ण है।

इस इकाई के अनुभाग 7.2 में, आप पढेंगे कि अंतर्जनित बल पृथ्वी की सतह के नीचे किस प्रकार उत्पन्न होते हैं और भूपर्पटी के विभिन्न संघटकों के सापेक्ष गतियाँ करते हैं। आप यह भी पढेंगे कि किस प्रकार विभिन्न प्रकार के अंतर्जनित बलों को दो समूहों

पटल-विरूपणी बल और आकस्मिक बल में वर्गीकृत किया जाता है। अनुभाग 7.3 में आप पटल-विरूपणी बल की संकल्पना के विषय में पढेंगे जो भूपर्पटी के नीचे काफी गहराई में उत्पन्न होते हैं लेकिन ये पृथ्वी की स्थलाकृति में दीर्घकालिक परिवर्तन जैसे पर्वतों और घाटियों इत्यादि का निर्माण करते हैं।

अनुभाग 7.4 और 7.5 में आप भूपर्पटी में आकस्मिक बलों की उत्पत्ति और उसके परिणामों के विषय में पढेंगे। आकस्मिक बलों का एक महत्वपूर्ण परिणाम ज्वालामुखी है जिसके विषय में आप अनुभाग 7.4 में पढेंगे। इस अनुभाग में आप ज्वालामुखियों की प्रकृति, प्रकारों और वितरण के विषय में भी पढेंगे। अनुभाग 7.5 में आप आकस्मिक बलों के अन्य प्रमुख परिणाम के विषय में पढेंगे जिसे भूकंप कहते हैं। इसके साथ ही आप भूकंप की उत्पत्ति, भूकंपी तरंगों, उसके विस्तार और तीव्रता के विषय में भी पढेंगे। पृथ्वी की भू-आकृति और स्थलाकृति का निर्माण अंतर्जनित एवं बहिर्जनिक बलों के द्वारा होता है। बहिर्जनिक बल पृथ्वी के वायुमंडल में उत्पन्न होते हैं और अंतर्जनित बलों द्वारा निर्मित प्रमुख भूआकृतिक विशेषताओं को निरंतर परिवर्तित करते रहते हैं। आप बहिर्जनिक बलों के विषय में इस खंड की आगामी इकाईयों में पढेंगे।

उद्देश्य

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:

%. अंतर्जनित बलों को परिभाषित और वर्गीकृत कर सकेंगे,

  1. बता सकेंगे कि किस प्रकार पटल विरूपणी बल जिनमें महादेश जनित और पर्वतोत्पत्ति संबन्धी गतियाँ सम्मिलित हैं, भूपर्पटी को प्रभावित करते हैं,
  2. ज्वालामुखियों की प्रकृति और प्रकारों, और उनके वितरण का वर्णन कर सकेंगे, तथा
  • किसी भूकंप की उत्पत्ति, विस्तार और तीव्रता को समझा सकेंगे।

7.2 अंतर्जनित बल : मौलिक संकल्पनाएँ और वर्गीकरण

हमें सामान्यतः पृथ्वी की सतह पर अनेक स्थलाकृतिक विशेषताएँ जैसे पर्वत, घाटियाँ, मैदान इत्यादि दिखाई देते हैं। क्या आप जानना चाहेंगे कि ये किस प्रकार अस्तित्व में आए हैं? क्या ये विशेषताएँ तब भी थी जब पृथ्वी ग्रह की उत्पत्ति हुई थी अथवा ये समय के साथ अस्तित्व में आई हैं? पृथ्वी की स्थलाकृतिक विशेषताएँ समय के साथ विकसित हुई हैं और ये मुख्यरूप से पृथ्वी की भूपर्पटी में सक्रिय बलों के कारण उत्पन्न हुई हैं। ये बल अंतर्जनित बल कहलाते हैं।

अंतर्जनित बल जो पृथ्वी की सतह के नीचे उत्पन्न होते हैं, और अक्सर पृथ्वी की स्थलाकृति को भूपदार्थों (भूपर्पटी की सामग्रियाँ) के निर्माण, विनाशीकरण, पुर्ननिर्माण और रखरखाव की प्रक्रिया द्वारा परिवर्तित कर देते हैं। ये बल पृथ्वी की सतह पर पर्वतों, कटकों, पठारों, घाटियों और मैदानों के रूप में विभिन्न प्रकार की ऊर्ध्व अनियमितताएँ उत्पन्न करते हैं। इसके अतिरिक्त ज्वालामुखीय क्रियाएँ और भूकंप की घटनाएं भी अंतर्जनित बलों की अभिव्यक्ति हैं जिन्हें आकर्मिक बल कहते हैं। जैसा कि नाम से पता चलता है, आकर्मिक बल पृथ्वी के आंतरिक संघटकों के आकर्मिक संचलन यानी गति

से उत्पन्न होते हैं। यद्यपि, सामान्य रूप से ये माना जाता है कि पृथ्वी के आन्तरिक संघटकों की गति अंतर्जनित बलों का प्रमुख कारण है, लेकिन अंतर्जनित बलों का यथार्थ कारण अभी भी ज्ञात नहीं हो पाया है। ये बल पृथ्वी के आन्तरिक भाग में सक्रिय हैं जिनके विषय में हमारी जानकारी अभी तक सीमित है। वास्तव में, कुछ पृथ्वी वैज्ञानिक मानते हैं कि अंतर्जनित बल पृथ्वी के अंदर की तापीय दशाओं से संबन्धित हैं। पृथ्वी के अंदर के विभिन्न मंडल में तापमान में भिन्नता से शैलों का संकुचन और विस्तार होता है, जिससे अंतर्जनित बल उत्पन्न होते हैं। इस इकाई में हमारा प्रमुख उद्देश्य पृथ्वी की स्थलाकृति को आकार देने में अंतर्जनित बलों के प्रभावों की चर्चा करना है।

अंतर्जनित बलों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है, पटल विरूपणी बल और आकस्मिक बल। चित्र 7.1 को देखिए, जिसमें अंतर्जनित बलों के वर्गीकरण के साथ ही पृथ्वी की स्थलाकृति और भू-आकृतिक विशेषताओं पर इनके प्रभाव को बताया गया है। पटल विरूपणी बलों से पृथ्वी के आंतरिक भाग में ऊर्ध्व अथवा क्षैतिज रूप से गति हो सकती है। ऊर्ध्व गति महादेश जनित और क्षैतिज गति पर्वतोत्पत्ति संबन्धी गति कहलाती है। जबकि आकस्मिक बल आकर्मिक और त्वरित गतियों के कारण होते हैं जिससे पृथ्वी के आन्तरिक भाग में अत्यधिक विनाश होता है।

क्या आपने कभी इन अंतर्जनित बलों के द्वारा होने वाले परिणामों को अनुभव किया है? यदि आपका उत्तर हाँ में है तो ये संभवतः आकर्मिक बलों के परिणामस्वरूप हो सकता है। यदि उत्तर नहीं है तो ये पटल विरूपणी बलों का परिणाम हो सकता है। ये हजारों लाखों वर्षों तक भी अदृश्य रह सकते हैं। हम सभी जानते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। भूवैज्ञानिक रूप से, कुछ परिवर्तन लंबी अवधि के परिवर्तन होते हैं और हमारे जीवनकाल में इनकी पहचान करना संभव नहीं होता है क्योंकि ये बहुत धीमी गति से संचलन करते हैं। दूसरी तरफ अल्पावधि के परिवर्तनों की पहचान कुछ सेकेण्ड अथवा कुछ घंटो में हो सकती है, जैसे ज्वालामुखी का फटना अथवा भूकंप का आना। संभवतः आप में से कुछ ने प्रत्यक्ष रूप से ज्वालामुखी के फटने और भूकंप की क्रियाओं को अनुभव किया होगा अथवा आपने अवश्य ही समाचार पत्रों में इनके विषय में पढ़ा होगा अथवा दूरदर्शन पर या अन्य स्रोतों से इसे देखा होगा। अंतर्जनित बल किस प्रकार पृथ्वी की सतह को प्रभावित करते हैं और किस प्रकार हम इन बलों के प्रभावों की पहचान कर सकते हैं? इन अंतर्जनित बलों के महत्व और परिणामों को समझने के लिए आपको निम्नलिखित अनुभागों को पढ़ना चाहिए।

बोध प्रश्न 1

अंतर्जनित बल क्या हैं और ये किस प्रकार निर्मित होते हैं?

7.3 पटल-विरूपणी बल

आप पहले ही पढ़ चुके हैं कि पटल-विरूपणी बल एक प्रकार के अंतर्जनित बल हैं और इनकी उत्पत्ति पृथ्वी की भूपर्पटी के नीचे कुछ गहराई में होती है। पटल विरूपणी बलों में ऊर्ध्व और क्षैतिज दोनों प्रकार की गतियाँ सम्मिलित हैं। ये रचनात्मक बल हैं, जो बहुत मंद गति से संचलन करते हैं और प्राथमिक भू-आकृतियों जैसे पर्वतों, पठारों, घाटियों, मैदानों इत्यादि के निर्माण के लिए उत्तरदायी होते हैं। पटल विरूपणी बलों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है: (a) महादेश जनित गतियाँ और (b) पर्वतोत्पत्ति संबन्धी गतियाँ। आइए अब हम महादेश जनित गतियों के विषय में पढ़ते हैं जिन्हें पटल विरूपणी बलों के अंर्तगत् वर्गीकृत किया गया है।

7.3.1 महादेश जनित संचलन

हमारे लिए भूपर्पटी के गुणों को पढ़ना महत्वपूर्ण है क्योंकि गतियाँ मुख्यरूप से भूपर्पटी को प्रभावित करती हैं। भूपर्पटी पृथ्वी की बहुत ही उथली एवं सबसे बाहरी परत होती है। यह महासागरीय भूपर्पटी और महाद्वीपीय भूपर्पटी की बनी होती है। महासागरीय भूपर्पटी की मोटाई 5 से 7 किलोमीटर के बीच होती है जो महाद्वीपीय भूपर्पटी से काफी पतली होती है। महाद्वीपीय भूपर्पटी 35 से 40 किलोमीटर की औसत गहराई तक होती है और कहीं-कहीं पर ये 70 किलोमीटर तक विस्तारित होती है। चित्र 7.2 में महाद्वीपों और महासागरों द्वारा आवरित भूपर्पटी को प्रदर्शित किया गया है। महाद्वीपीय भूपर्पटी कम घनत्व के सिलिकेट खनिजों जैसे एल्यूमीनियम और पोटेशियम की बनी होती है, जबकि महासागरीय भूपर्पटी लौह अयस्क से समृद्ध होती है, अतः ये महाद्वीपीय भूपर्पटी से अधिक सघन होती है। महाद्वीपीय भूपर्पटी महासागरीय भूपर्पटी से मोटी होती है लेकिन इसका घनत्व उससे कम होता है। इस गुण के कारण, महाद्वीपप प्रावार पर उसी प्रकार तैरते हैं जैसे महासागरों पर हिमशैल तैरते हैं। पृथ्वी का सबसे आंतरिक भाग क्रोड कहलाता है जो एक कवच से घिरा रहता है और सिलिकेट खनिजों से समृद्ध शैलों से निर्मित हुआ है।

चित्र 7.2 : भूपर्पटी के क्षेत्रः a) महाद्वीप महाद्वीपीय भूपर्पटी के कारण ऊंचाई पर स्थित रहते हैं जो मोटी और भार में हल्की होती है; b) महासागर नीचे होते हैं क्योंकि महासागरीय भूपर्पटी बहुत पतली और सघन होती है।

(समय सीमा 5 मिनट)

आप इकाई 6 को पढ़ सकते हैं जिसमें स्थलमण्डल की विस्तृत जानकारी है जो भूर्पटी, प्रावार और क्रोड से निर्मित हुई है।
एपिरोजेनी (महादेश) का अर्थ है ‘मुख्यभूमि’। इस शब्द को एक अमेरिकी भूवैज्ञानिक क्लैरेन्स डट्टन ने 1890 में प्रतिपादित किया था जो ग्रीक शब्द ‘एपीरेस’ से बना है।

प्लेट विवर्तनिकी और पर्वत निर्माण, प्रक्रियाओं पर विस्तृत जानकारी के लिए आप इकाई 6 को पढ़ सकते हैं।
प्रतिबल वह बल है जो किसी पिंड पर असमान रूप से सभी दिशाओं से कार्य करता है और विभेदी प्रतिबल कहलाता है। विभेदी प्रतिबल तीन प्रकार के होते हैं जिनमें तनावी, संपीडनीय और अपरूपक बल सम्मिलित हैं।
आइए अब हम महादेश जनित गतियों के विषय में चर्चा करते हैं। ये गतियाँ क्रमशः उपरिगामी और अधोगामी गतियों के कारण महाद्वीपीय भूपर्पटी का उत्थापन और अवतलन करती हैं। उपरिगामी और अधोगामी गतियाँ दोनों ही मूलरूप से लंबवत गतियाँ हैं जो पृथ्वी की त्रिज्या पर कार्य कर रहे बलों के समूह द्वारा उत्पन्न होती हैं। ये भूपर्पटी के व्यापक क्षेत्रों को बिना किसी खास वलन अथवा अंशन किए प्रभावित करती हैं। पटल विरूपणी गतियाँ महाद्वीप निर्माण गतियाँ भी कहलाती है क्योंकि ये गतियाँ व्यापक स्तर पर भूखंडों को प्रभावित करती हैं।

अब आप ये समझ गए होंगे कि उत्थापन (ऊपर उठना) ऊर्ध्व गति का एक भाग है और इसमें या तो पूरे महाद्वीप अथवा उसके कुछ भाग का उत्थापन होता है। इस क्रिया के कारण महाद्वीपों के कुछ भाग ऊपर उठ जाते (उत्थापित) अथवा अवतलित हो जाते (धसक सकते) हैं। महाद्वीपों की तटीय भूमि का उत्थापन उन्मन्जन कहलाता है। उत्थापन के कुछ प्रमुख उदाहरण दक्कन का पठार, निमज्जित तटीय फ्लोरिडा और वेस्ट कोस्ट (पश्चिमी तटीय) द्वीपों का उत्थापन है। अधोगामी गति से महाद्वीपीय भू-क्षेत्र का अवतलन हो जाता है और समुद्रतट के निकट का भू-क्षेत्र जो समुद्र के अंदर निमज्जित हो जाता है निमज्जन कहलाता है। अवतलन के कारण अंडमान ओर निकोबार द्वीप अराकन तट से पृथक्कृत हो गए। अब हम पर्वतोत्पत्ति संबंधी गतियों की चर्चा करेंगे।

7.3.2 पर्वतोत्पत्ति संबंधी गतियाँ

क्या आप जानते हैं कि पर्वत श्रृंखलाएँ किस प्रकार बनती हैं? आपको प्लेट विर्वतनिकी और पर्वत निर्माण के सिद्धान्तों की संकल्पना को पढ़ लेना चाहिए जिनके विषय में पिछली इकाईयों में समझाया गया है; जिससे आप पर्वत निर्माण के कारणों को बेहतर तरीके से समझ पाऐंगे। प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त के अनुसार, प्रावार का ऊपरी भाग और महाद्वीपीय भूपर्पटी जिसे स्थलमंडल भी कहते हैं – सात प्रमुख तथा लगभग 20 छोटे मंडलों में विभाजित है। यह खंड विभिन्न आकारों के है। ये खंड स्थलमंडलीय अथवा विर्वतनिक प्लेटें कहलाती हैं और एक दूसरे के सापेक्ष सदैव गतिशील रहती हैं। इस क्रिया के कारण प्लेट सीमाओं अथवा किनारों पर वृहत् पारस्परिक क्रियाएँ होती हैं जिससे पर्वत शृंखलाएँ बनती हैं। प्लेट एक-दूसरे के सापेक्ष तीन प्रकारों से गति करती हैं जैसे अपसारी (जब प्लेटें एक दूसरे से दूर गति करती है), अभिसारी (जब प्लेटें एक दूसरे की ओर गति करती है) और रूपांतरी (जब प्लेटें एक दूसरे पर विसर्पण करती है)। ज्यादातर पर्वत निर्माण क्रिया विशेषरूप से दो प्लेटों के बीच अभिसारी सीमा पर होती है।

पर्वतोत्पत्ति संबंधी गतियाँ मुख्यरूप से प्लेट सीमाओं अथवा प्लेट किनारों पर होती हैं जिससे सघन वलन और अंशन उत्पन्न होते हैं। ये बल पृथ्वी के प्रावार पर क्षैतिज रूप से क्रिया करते हैं जिससे पर्वतोत्पत्ति गति होती है। ये क्षैतिज बल तीन तरीकों से काम करती है, एक दूसरे के आमने-सामने, एक दूसरे के विपरीत और एक दूसरे के समानान्तर। दो बल जो एक दूसरे के सम्मुख अथवा एक दूसरे की ओर कार्य करते हैं वे संपीडनात्मक बल अथवा अभिसारी बल कहलाते हैं। आप संभवतः जानते होंगे कि जब शैलों पर संपीडनात्मक बल कार्य करता है तो वे मुड़ जाती हैं। इसी प्रकार संपीडनात्मक बल अभिसारी प्लेट सीमाओं पर कार्य करता है जिससे शैल मुड़ या संपीडित हो जाती है। दूसरी तरफ कुछ बल शैल पर विपरीत दिशा में कार्य करते हैं, जिसमें शैल विदारित हो जाती है। ये बल तनावी बल अथवा अपसारी बल कहलाते हैं। अपरूपक बलों के तहत प्रतिबल एक दूसरे के समान्तर कार्य करते हैं लेकिन ये कँची की गति की भांति

एक दूसरे के विपरीत दिशा में होते हैं। ये बल रूपांतरी भंशन कर सकते हैं। तनावी और अपरूपक बल अंशन अथवा भंजन करते हैं। यदि एक सिरे पर संपीडन हो तो दूसरे सिरे पर तनाव हो सकता है। अतः ये स्पष्ट है कि वलन और अंशन अक्सर एक साथ घटित होते हैं।

वलन

जैसा कि आप जानते हैं कि भूपर्पटी विभिन्न स्थलमंडलीय प्लेटों की बनी है और निरंतर गतिशील है। जब दो महाद्वीपों की टक्कर होती है, तो महाद्वीपीय किनारों के मध्यवर्ती भाग के अवसादी शैल, संपीडन के प्रबल बलों के कारण वलित हो जाते हैं। वलनों की निर्माण प्रक्रिया को समझने के लिए चित्र 7.3 देखिए; जिसमें आपको ये समझाया गया है कि क्षैतिज संस्तर संपीडन के कारण होने वाले स्थायी विरूपण से मुड़ अथवा वक्रित हो जाते हैं। क्षैतिज संस्तरों पर पड़ने वाले लहरदार तरंगों के चाप के कारण कुछ भाग ऊपर उठ एकांतरी उद्वलित हो जाते हैं जिन्हें अपनत और नीचे धसे भागों को जो द्रोणी जैसे अधोवलित हो जाते हैं, अभिनत कहते हैं। एकनत अथवा क्षैतिज निरूपण में एकल बंकन होता है। अपनत से संबद्ध आरंभिक भू-आकृति गोल पहाड़ी कटक होती है और अभिनत से संबद्ध भू-आकृति एक दीर्घोकृत खुली घाटी होती है। वलनों का प्रकार और आकार विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है जैसे कि शैल की प्रकृति, संपीडन बलों की तीव्रता और दिशा आदि। कुछ शैल परतों में वलन कुछ सेन्टीमीटर से कुछ किलोमीटर तक के होते हैं और सटे हुए अथवा व्यपाक, सममित अथवा असममित होते हैं। अधिकांश पर्वत तंत्रों में कुछ मात्रा में वलन दिखाई देते हैं। हम अपलेशियन और हिमालय इत्यादि पर्वतों में व्यापक स्तर पर वलन द्वारा निर्मित संरचनाओं को देख सकते हैं।

चित्र 7.3: संपीडनात्मक बलों के कारण निर्मित वलन।

अब आपको वलनों के विभिन्न संघटकों से संबद्ध शब्दावली को समझने की आवश्यकता है (चित्र 7.4)। वलनों के दोनों पार्श्व भाग या किनारे भुजाएँ कहलाती हैं। भुजाओं की मध्य रेखा, अभिनति द्रोणी में वलन का अक्ष कहलाती है। भुजाओं के बीच निर्मित एक काल्पनिक तल, जो वलन को दो अर्धभागों में बांटता है अक्षीय तल कहलाता है। यदि अक्ष क्षैतिज से झुका होता है तो वलन को अवनमन वलन कहते हैं। यदि अक्षीय तल ऊर्ध्व हो और अक्ष क्षैतिज हो, तो वलन को सममित वलन कहते हैं, जब अक्षीय तल झुका होता है तो वलन भी झुका होता है। प्रमुख प्रकार के वलनों को चित्र 7.5 में दिखाया गया है। जब संपीडन बल नियमित रूप से अथवा दोनों तरफ से लगभग समान तीव्रता के साथ कार्य करते हैं तो इससे निर्मित वलन को सममितीय अथवा सामान्य अथवा खुला वलन कहते हैं। ये दुर्लभ रूप से ही पाए जाते हैं। इन वलनों के कुछ

उदाहरण फ्रांस तथा स्वीटजरलैण्ड का जूरा पर्वत हैं। असममित वलन तब बनते हैं जब दोनों भुजाएँ असमान होती हैं और अनियमित तथा भिन्न कोणों से युक्त होती हैं। एक भुजा मध्यम झुकाव के साथ बड़ी हो सकती है और दूसरी खड़े ढ़ाल वाले झुकाव के साथ छोटी हो सकती है।

चित्र 7.4: एक वलन के मौलिक संघटक।

a

d

b

C

e

चित्र 7.5 : संपीडनात्मक बलों के कारण बनने वाले विभिन्न प्रकार के वलनः

a) सामान्य b) असममित; c) प्रतिवलन; d) समनतिक; e) शयान या परिवलन।

प्रबल संपीडनात्मक बलों के साथ वलन की दोनों भुजाएँ समान्तर हो जाती है जिसे समनतिक वलन कहते हैं। इस प्रकार में दोनों भुजाएँ एक ही दिशा में समान कोण पर झुकती हैं। शयान वलन तब बनते हैं जब वलन की दोनों भुजाओं में संपीडन की तीव्रता समान्तर और क्षैतिज होती है। दाब में और वृद्धि के साथ, शयान वलन टुकड़ों में कट जाते या अपरूपित हो जाते हैं जिनमें शैल के टुकड़े नीचे स्थित शैल के ऊपर कम झुकाव वाली सपाट सतहों पर गति करते हैं, यह अधिक्षेप (Overthrust) वलन कहलाते हैं। अपरूपण का तल दबाव वाला तल होता है और संरचना अतिदबाव वलन कहलाती है। वैयक्तिक शैल टुकड़े अथवा दबाव परतें नीचे स्थित शैल संस्तर के ऊपर दसियों किलोमीटर तक क्षैतिज रूप से ले जाई जाती है। इस प्रकार की दबाव मुक्त परतें नापे (Nappes) कहलाती हैं। यह एक फ्रांसीसी शब्द है जिसका अर्थ है ‘आवरण परत’ अथवा मेजपोश। नैपीज का उदाहरण यूरोपीय आल्पस पर्वत हैं। आप विश्व के प्रमुख वलन तंत्रों के वितरण को चित्र 7.6 में देखेंगे।

भ्रंशन और क्षेपण

आपने वलनों और उनके प्रकारों पर मौलिक जानकारी प्राप्त कर ली है। जैसा कि आप जानते हैं वलन शैल परतों का मुड़ना या उनमें सिकुड़न होता है जो तब होता है जब संपीडनीय बल आमने-सामने शैलों पर क्रिया करते हैं। अब आप ये जानते हैं कि भ्रंशन अथवा भंजन पृथ्वी की भूर्पटी में पर्वतोत्पत्ति गतियों के परिणाम स्परूप होते हैं। अंश भूपर्पटीय शैल में एक विभंजन है जो मुख्यरूप से अंतर्जनित बलों द्वारा उत्पन्न तनाव बल के कारण होता है। तल का शैल खंडों के साथ विस्थापित हो जाना अंशन तल कहलाता है। भंश तब बनते हैं जब तल के दोनों और के शैल एक दूसरे के सापेक्ष अथवा तल के समांतर गति करते हैं। तनाव बलों के कारण शैल की परतें विस्थापित हो सकती है। भ्रंशन के बनने के समय, शैल खंडों का ऊर्ध्व विस्थापन कई सौ मीटर तक हो सकता है और क्षैतिज विस्थापन कई किलोमीटर तक विस्तारित हो सकता है। जब भंशन का क्षैतिज विस्तार अत्यधिक होता है, तो सतह या अंश रेखा को भूमि पर कई किलोमीटर तक देखा जा सकता है।

अंशन के व्यापक अध्ययन से भूवैज्ञानिकों को ये समझने में सहायता मिलती है कि विवर्तनिक प्लेटें किस प्रकार एक दूसरे के सापेक्ष गति करती है। चार मौलिक प्रकार के भंशनों को आनति या झुकाव के कोण एवं एक भित्ति से दूसरी के सापेक्ष विस्थापन की दिशा के आधार पर वर्गीकृत किया गया है (चित्र 7.7)। यदि विस्थापन भ्रंशन तल के ऊपर या नीचे हो, तो ये नति-सर्पण (Dip slip) अंश कहलाता है, जबकि नतिलंब सर्पण (Strike slip) अंशन तब बनता है जब विस्थापन भंश रेखा के समान्तर होता है और जब विस्थापन में नतिलंब सर्पण और नति-सर्पण दोनों संयुक्त होते हैं तो उसे तिर्यक स्लिम भ्रंशन कहते हैं। अंशन के दोनों तरफ के खंडों को फलक भित्तियाँ कहते हैं। भंशन तल में भित्तियों को पृथक करने वाली सतह अंश कगार कहलाती है। ऊपरी फलक निलंबन भित्ति और निचली फलक आधार भित्ति कहलाती है।

वे भ्रंशन जिनमें प्राथमिक रूप से ऊर्ध्व गति होती है सामान्य अंश कहलाते हैं। सामान्य अंश में खड़ा या लगभग ऊर्ध्व नमन होता है। गति की दिशा ऊर्ध्व होती है और इसके फलस्वरूप एक भाग दूसरे के सापेक्ष ऊपर उठ जाता है या नीचे की ओर धंस जाता है। सामान्य भंशन भूर्पटी के भंशित संस्तरों के विस्तार की अभिव्यक्ति है। इस प्रकार के अंश में, पार्श्व गति विपरीत दिशा में होती है। खड़ी दीवार जैसा ढ़ाल कगार जो सामान्य भ्रंश द्वारा बनता है भ्रंश कगार कहलाता है। भंश कगार की ऊंचाई कुछ मीटर से कई सौ मीटर तक के विस्तार में हो सकती है इनकी लंबाई अक्सर 100 किलोमीटर अथवा इससे अधिक भी देखी गई है। सामान्यः अंश सामान्यतः अंशों की बहु और समान्तर श्रृंखला के रूप में पाए जाते हैं।

खड़ा, उच्च कोण का अंश जो संपीडनीय बलों से बनता है, व्युत्क्रमी अंश कहलाता है। विपरीत विस्थापन से व्युत्क्रमी अंश का निर्माण होता है जिसमें निलंबित दीवार आधार भित्ति के सापेक्ष ऊपर की ओर गति करती है। हमें याद रखना चाहिए कि सामान्य और व्युत्क्रम अंश दो उत्थापन अथवा नीचे विस्थापित खंडों के किनारों पर भंश कगार बनाते हैं। व्युत्क्रम भंश भंशित क्षेत्र को छोटा कर देता है, जबकि सामान्य भ्रंश भंशित क्षेत्र को विस्तारित कर देता है। यदि व्युत्क्रम अंश पर अत्यधिक संपीडनात्मक बल डाला जाता है तो ऊपर उठा खंड नीचे वाले खंड पर अपेक्षाकृत कम कोण पर गति करता है और होने वाली गति क्षैतिज हो सकती है। शैल खंड अनेकों किलोमीटर तक पार्श्व रूप से गति करते हैं। भूस्खलन के साथ अक्सर व्युत्क्रम भ्रंशन भी होता है।

जब शैल खंड क्षैतिज गति के कारण भ्रंश तल पर क्षैतिज रूप से गति करते हैं और कोई भ्रंश कगार नहीं बनते हैं तो ये पार्श्व रेखा या स्ट्राइक स्लिप भ्रंश कहलाते हैं । ये अत्यधिक जटिल भ्रंश होते हैं। सिर्फ एक पतली भ्रंश रेखा सतह पर दिखाई देती है । इन्हें अपरूप रूपांतरित अनरित या मोड़ भ्रंश भी कहते हैं । कुछ प्रमुख उदाहरण न्यूजीलैन्ड में अल्पाइन भ्रंश, स्कॉटलैन्ड में ग्रेट ग्लेन भ्रंश और स्पेन में लोर्च अलाहामा भ्रंश अथवा अल्हामा डी म्यूरिका भ्रंश हैं। दबावयुक्त तथा अपरूप भ्रंश सामान्यतः अवतलन और महाद्वीपीय क्षेत्रों में देखे जाते हैं ।
कोई ग्राबेन अथवा घाटी तब बनती है जब दो सामान्य भ्रंशों के बीच नीचे की ओर एक खंड विस्थापित हो जाता है। एक सामान्य भ्रंश खंड दो सामान्य भ्रंशों के बीच ऊपर उठ जाता है तो उत्खंड (Horst) कहलाता है । स्थलाकृतिक रूप से, उत्खंड पठारों अथवा सपाट शीर्ष वाले और खड़े और पार्श्व भागों वाले पर्वतों जैसे खंड बनाते हैं । द्रोणिका (Graben) घाटी या दर्रे जैसी संरचना होती है जिसके किनारों पर खड़ी समान्तर दीवारें होती है । होर्स्ट का श्रेष्ठ उदाहरण भारत में शिलाँग का पठार और राइन का ग्राबेन (पूर्वी अफ्रीकी दरार घाटी तंत्र ) है जो लंबाई में 600 किलोमीटर और चौड़ाई में 700 किलोमीटर तक विस्तारित है ।
अभी तक, इस अनुभाग में आपने मुख्य बलों के विषय में पढ़ा है जो पृथ्वी की भूपर्पटी में पाए जाते हैं। जैसे कि, पटल विरूपणी बलों के कारण महादेश जनक और पर्वतोत्पत्ति संबन्धी गतियाँ। आप महाद्वीपों के उत्थापन और अवतलन के बारे में भी समझ गए होंगे जिनके विषय में महादेश जनक गतियों के अंर्तगत संक्षेप में बताया गया है । आपने वलनों के निर्माण और तनावी बलों के विषय में भी पढ़ा है । वलन संपीडनात्मक बलों के कारण बनते हैं, जबकि भ्रंश तनाव बलों के कारण बनते हैं । आगामी अनुभाग और उप- अनुभागों में आप आकस्मिक बलों के विषय में पढेंगे ।

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